किसानों को अब समझ में आ रहा है कृषि कानून बिल के फायदे, रद्द ना होते कानून तो और अधिक मिलता लाभ

रमेश कुमार दुबे, नई दिल्ली । एक साल तक चले कृषि कानून विरोधी आंदोलन के चलते भले ही केंद्र सरकार को तीनों कृषि कानून वापस लेने पड़े हों, लेकिन अब किसानों को उनकी अहमियत समझ आ रही है। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान आज सरकारी खरीद केंद्रों की तुलना में निजी क्षेत्र के कारोबारियों को गेहूं बेचने में प्राथमिकता दे रहे हैं। इन्हीं इलाकों में कृषि कानून विरोधी आंदोलन का ज्यादा जोर था। जहां गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 2,015 रुपये प्रति क्विंटल है, वहीं व्यापारी प्रति क्विंटल 200 से 300 रुपये अधिक दाम देकर किसानों के खेत में ही खरीदारी कर रहे हैं। सरसों का एमएसपी 5,500 रुपये प्रति क्विंटल है, लेकिन हरियाणा में खुले बाजार में सरसों 6,200 से 7,000 रुपये प्रति क्विंटल के भाव बिक रही है। सफेद सोना कही जाने वाली कपास भी 5,726 रुपये के एमएसपी के मुकाबले 10 से 12 हजार रुपये प्रति क्विंटल तक बिक रही है। इसके लिए किसानों को कहीं जाना नहीं पड़ रहा है। व्यापारी खुद उनके पास आ रहे हैं। विडंबना देखिए कि किसानों ने जिस अदाणी समूह के खिलाफ जोरदार प्रदर्शन किया था, उसी के भंडारघरों (साइलो) में गेहूं तुलवा रहे हैं, क्योंकि वहां आटोमेटिक तुलाई के कारण प्रति ट्राली 1000 रुपये की बचत होती है। यदि कृषि कानून निरस्त न किए गए होते तो किसानों को और लाभ मिल रहा होता।

कृषि कानूनों का एक अहम प्रविधान था अनाज खरीद में निजी क्षेत्र की भागीदारी, ताकि प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा मिले और किसानों को उनकी उपज की वाजिब कीमत मिले। कुछेक किसान संगठनों ने इसका यह अर्थ निकाला कि सरकार धीरे-धीरे अनाज खरीद से पीछे हट जाएगी और उन्हें पूरी तरह निजी खरीद के सहारे छोड़ दिया जाएगा। इसी के चलते उन्होंने एक साल तक आंदोलन किया। पंजाब और हरियाणा में मौजूद आढ़तियों-बिचौलियों की ताकतवर लाबी ने इस आंदोलन के लिए उर्वर जमीन मुहैया कराई, क्योंकि अनाज खरीद में प्रतिस्पर्धा बढ़ने से उनके हित प्रभावित होते। कतिपय दलों के समर्थन वाली यह लाबी नहीं चाहती कि खेती-किसानी में नवोन्मेषी नीतियां लागू हों।

विडंबना तो देखों कि सुई से लेकर हेलीकाप्टर तक बनाने वाली कंपनियां अपना सामान बेचने के लिए आजाद हैं, लेकिन किसान नहीं। 1953 में बने एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केटिंग कमेटी (एपीएमसी) कानून के तहत किसानों को अपनी उपज बेचने के लिए आढ़तियों का सहारा लेना ही होगा। मोदी सरकार इसी अप्रासंगिक कानून को बदलने के लिए सूचना प्रौद्योगिकी आधारित ऐसी विकेंद्रित खरीद नीति लागू कर रही है, जो क्षेत्र विशेष और फसल विशेष तक सीमित न होकर समूचे देश में लागू हो। इस खरीद नीति में सरकार के समानांतर निजी क्षेत्र की भी मौजूदगी रहेगी, ताकि कीमतों के प्रतिस्पर्धी होने से उसका अधिकाधिक लाभ किसानों को मिले।

उभरते बाजार और मांग की परिस्थितियों के साथ कृषि क्षेत्र का तालमेल बिठाने के लिए मोदी सरकार देश भर के किसानों का डिजिटल रिकार्ड बना रही है। इसके साथ-साथ मंडी व्यवस्था का आधुनिकीकरण किया जा रहा है। 2016 तक किसान अपनी उपज या तो सरकारी खरीद केंद्रों पर या खुले बाजार में कारोबारियों को बेचते थे। इससे उन्हें उनकी उपज की वाजिब कीमत नहीं मिल पाती थी। इस स्थिति से निपटने के लिए मोदी सरकार ने राष्ट्रीय कृषि बाजार (ई-नाम) की शुरुआत की। इसके तहत सभी कृषि मंडियों को एक-दूसरे से जोड़ दिया गया है। इससे किसानों को अपनी उपज बेचने के लिए अंतरराज्यीय बाधाओं का सामना नहीं करना पड़ता। अब तक 18 राज्यों और तीन केंद्र शासित प्रदेशों की 1,000 मंडियों को ई-नाम प्लेटफार्म में बदला जा चुका है। इससे 1.73 करोड़ किसान, दो लाख व्यापारी और 2000 किसान उत्पादक संघ (एफपीओ) जुड़ चुके हैं।

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