देहरादून। कहने को उत्तराखंड महज 70 विधानसभा की सीटों वाला छोटा राज्य है, लेकिन वहां की सियासत इतनी बडी और बगावती तेवरों वाली है कि राज्य बनने से लेकर आज तक कोई भी मुख्यमंत्री पांच साल का अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया। नेताओं के दलबदल का अपना अलग इतिहास है और शायद ही कोई चुनाव ऐसा हुआ हो, जब कांग्रेस और बीजेपी के नेताओं ने पाला न बदला हो। यह देश का इकलौता ऐसा प्रदेश है, जहां बीजेपी को अपनी पांच साल की सरकार में तीन सीएम बदलने पर मजबूर होना पड़ा। राज्य की राजनीति में अपना कद्दावर कद रखने वाले हरक सिंह रावत छह साल पहले कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हुए थे और 2017 में जब सरकार बनी तो वे कैबिनेट मंत्री भी बन गये। अब चुनाव से ऐन पहले अपने बगावती सुरों को लेकर पार्टी ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया और अब वे दोबारा घर वापसी के लिए कांग्रेस की दहलीज़ पर जा पहुंचे हैं। दरअसल, बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व नहीं चाहता था कि तीन मंत्रियों व विधायकों के पार्टी छोड़ने का जो घटनाक्रम यूपी में हुआ, वह उत्तराखंड में भी देखने को मिले. चुनाव आते ही हरक सिंह रावत के बगावती तेवरों से साफ होने लगा था कि वे ज्यादा दिन तक पार्टी में नहीं रहने वाले हैं। दरअसल वह विधानसभा चुनाव के लिए तीन सीट पर टिकट मांग रहे थे, जिसे पूरा करना पार्टी के लिए भी मुश्किल था. वह अपने अलावा अपनी बहू और एक रिश्तेदार के लिए भी टिकट देने की जिद पर अड़े हुए थे, लेकिन पार्टी नेतृत्व एक परिवार से एक टिकट देने के फॉर्मूले पर ही अडिग था। दबाव डालने की रणनीति के तहत ही रावत ने पार्टी की बैठकों में शामिल होना भी बंद कर दिया। लिहाज़ा बीजेपी नेतृत्व नहीं चाहता था कि जिस तरह से टिकट कटने के डर से उत्तर प्रदेश में मंत्री और विधायकों ने पार्टी छोड़ी, वही नज़ारा उत्तराखंड में भी देखने को मिले, इसलिए हरक सिंह रावत खुद इस्तीफा दें, इससे पहले पार्टी ने खुद ही उन्हें बाहर कर दिया। पिछले चुनाव में रावत कोटद्वार से विधायक चुने गए थे, लेकिन इस बार उन्हें वहां से अपनी हालत डांवाडोल नजर आ रही थी, इसलिये वे अपने लिए सेफ सीट चाहते थे। बताया जाता है कि यमकेश्वर, केदारनाथ और डोईवाला उनकी पसंदीदा सीटें हैं और इनमें से किसी एक सीट से वे चुनाव लड़ना चाहते हैं। इसके अलावा दो टिकट परिवार के लिए भी मांग रहे थे। रावत ने अपनी बहू के लिए लैंसडाउन की सीट मांगी थी पर पार्टी ने इनकार कर दिया। बताते हैं कि बीजेपी उन्हें तो मनचाही सीट से टिकट देने को तैयार थी। पर परिवार के लिए दो सीटों की जिद ने सारा खेल बिगाड़ दिया. नतीजा ये हुआ कि छह साल पहले उन्होंने जिस तरह से आधी रात को सीएम हरीश रावत की कांग्रेस सरकार को गिराने का खेल खेला था, ठीक उसी अंदाज में आधी रात को ही बीजेपी ने उन्हें कैबिनेट और पार्टी से बेइज़्ज़त करके बाहर कर दिया। कहते हैं कि राजनीति में अक्सर इतिहास खुद को दोहराता है। हरक सिंह रावत के लिए पाला बदलना कोई नई बात नहीं है. वह मौकापरस्ती के माहिर खिलाड़ी माने जाते रहे हैं और इस बार अगर वह अपनी सीट नहीं बदलते तो यह अपने आप में रिकॉर्ड हो जाएगा। बात 18 मार्च 2016 की है. तब उत्तराखंड में हरीश रावत यानी कांग्रेस की सरकार थी। उस सरकार को गिराने के लिए हरक सिंह रावत, विजय बहुगुणा और 8 अन्य विधायक बीजेपी में शामिल हुए थे. बीजेपी के अन्य विधायकों के साथ वे बस में भर कर आधी रात को राज्यपाल से मिलने पहुंचे थे। उन नौ बागियों में हरक सिंह रावत की भूमिका अहम थी। विधायकों की बगावत के चलते हरीश रावत सरकार को हटाकर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था. मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा और कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद हरीश रावत सरकार लौट तो आई, लेकिन ज्यादा दिन तक नहीं चल पाई। हरक सिंह समेत सभी बागियों ने भाजपा जॉइन कर ली। 2017 के चुनाव में बीजेपी ने हरक सिंह रावत को कोटद्वार सीट से चुनाव लड़ाया और वह विधायक चुने गए. उन्हें उत्तराखंड सरकार में कैबिनेट मंत्री बनाया गया, लेकिन कई बार कई मामलों को लेकर तत्कालीन सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत से उनके मतभेद होते रहे. श्रम मंत्रालय को लेकर भी उनकी त्रिवेंद्र सरकार से नाराजगी रही. पुष्कर सिंह धामी के सीएम बनने के बाद भी उनकी सियासी खिंचतान जारी रही. तब हरक सिंह रावत ने कोटद्वार में मेडिकल कॉलेज को मान्यता नहीं दिए जाने के आरोप में कैबिनेट बैठक में ही अपना इस्तीफा सौंप दिया था, हालांकि बाद में बीजेपी नेतृत्व उन्हें मनाने में कामयाब हो गया था। उसके बाद रावत को शायद ये गुमान हो गया था कि वे अपने परिवार के लिए जितनी टिकट मांगेंगे, पार्टी उन्हें देने में नहीं हिचकेगी, लेकिन ये सियासत है, जहां एक जिद ही चंद सेकंड में कद्दावर नेता को भी अर्श से फर्श पर ले आती है। हरक सिंह रावत को भी अब शायद इसका गहराई से अहसास हो गया होगा।
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