महानवमी के दिन मां सिद्धिदात्री की होती है पूजा, चार भुजाओं वाली कमलासना माँ के दाहिनी ओर के नीचे वाले हाथ में खिला हुआ कमल है, जो देखें तो सुषुप्त चक्रों के खुलने का प्रतीक

या देवि सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
– तंत्रोक्त देवीसूक्त

भक्तवत्सला जगदंबा : ‘माँ दुर्गा’ की उपासना की उत्तमावस्था है– महानवमी! पूर्ण निष्ठा से की गई साधना इस दिन सिद्धि में परिणत होती है।

मान्यता है कि इस दिन तक आते-आते साधक साध ही लेता है और नौवें रूप में जीवनमुक्तता की अवस्था प्रदान करनेवाली ‘मोक्षदा-शक्ति’– माँ सिद्धिदात्री के रूप में प्रकट होती हैं। समस्त चर-अचर जगत् को संचालित करनेवाली, सर्वविधात्री देवी दुर्गा ‘सिद्धि’ और ‘मोक्ष’ प्रदात्री हैं और ऐश्वर्यप्रदायिनी भी। आश्वस्ति है कि दीनवत्सला दयामयी देवी का आश्रय ग्रहण करने पर इस संसार में कुछ भी अलभ्य नहीं रहता !!

चार भुजाओं वाली कमलासना माँ के दाहिनी ओर के नीचे वाले हाथ में खिला हुआ कमल है, जो देखें तो सुषुप्त चक्रों के खुलने का प्रतीक है।

इससे पहले के आठ दिनों में साधक अष्टसिद्धि प्राप्त करता है। मार्कण्डेय पुराण में इन अष्ट सिद्धियों का उल्लेख भी मिलता है– अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व।

भाषा-विज्ञान की दृष्टि से देखें, तो नवरात्र से संबद्ध सभी प्रतीकों की महत्ता स्वयंमेव यह सिद्धिदात्री माँ ही समुद्घाटित करने में पूर्णत: सक्षम हैं। यहाँ तक कि इस अवसर पर होने वाले रास, डांडिया आदि नृत्य, लास्य आदि प्रतीक स्वरूपात्मक ही हैं।

यह बाहर खेला जाना वाला रास वस्तुतः मनुष्य के मन, बुध्दि, चित्त, अहंकार की रसात्मक अनुभूति है जो कि वस्तुतः किसी भी साधक के परम तप की परिणति होती है।

समष्टि रूप में ये हमारी आंतरिक शक्तियों के प्रतीकात्मक चिह्न हैं जो कि भौतिक उपादानों से अभिव्यंजित होते हैं, जैसे– रास अंदर के ‘रस’ की, रसात्मक-अनुभूति और साधना की चरम परिणति से आये संगति का प्रतीक है। इसी तरह, डांडिया में जो डंडे लयपूर्वक मिलाए जाते हैं, वे अंदर की शक्तियों के सुमेल के प्रतीक हैं।

द्रष्टव्य है कि माँ महिमामय गुणव्यंजक चरित्र को प्रकाशित करनेवाले 16 वेदोक्त नामों के संकीर्तन द्वारा वेदवेत्ता महर्षियों ने भी इनकी उपासना की है, जो निम्नवत् हैं–

(१) दुर्गा, (२) नारायणी, (३) ईशाना, (४) विष्णुमाया, (५) शिवा, (६)सती, (७) नित्या, (८) सत्या (९) भगवती, (१०) सर्वाणी, (११) सर्वमंगला, (१२)अंबिका, (१३) वैष्णवी, (१४) गौरी, (१५) पार्वती और (१६) सनातनी ।

उपासना की दृष्टि से ये नाम इतने महत्वपूर्ण हैं कि इन्हें पुलकित भाव से अर्थ सहित हृदयंगम कर लेने मात्र से सर्वसिद्धिदायिनी दुर्गा देवी के गुण-स्मरण-कीर्तन के रूप में मानो इनकी पूजा संपन्न हो जाती है। अस्तु, इन वेदोक्त नामों की व्याख्या विशेष रूप से द्रष्टव्य है–

(१) ‘दुर्गा’ शब्द का पदच्छेद है – दुर्ग + आ। ‘दुर्ग’ शब्द – किला, भयंकर दैत्य, महारोग, महादुख, महाबाधा, कर्म-बंधन, भव-बंधन इत्यादि– अर्थ का द्योतक है और ‘आ’ हंता-वाचक, जय वाचक है। अर्थात् इन सभी अमंगलकारी-अशुभ शक्तियों का विनाश करनेवाली शक्ति ‘दुर्गा’ के नाम से विश्वविख्यात है।

(२) नारकीय स्थित से उद्धार करनेवाली, नारायण की तेजस्विनी शक्ति होने एवं रूप-गुण-यश में नारायण-तुल्य होने के कारण ये देवी ‘नारायणी’ कही जाती हैं ।

(३) ‘ईशाना’ का पदच्छेद है – ईशान + आ। ‘ईशान’ शब्द सर्वसिद्धियों का द्योतक है और यहाँ ‘आ’ दाता-वाचक है। अर्थात् अपने भक्तों को, प्रसन्न होकर सर्वसिद्धियाँ प्रदान करने के कारण ये ‘ईशाना’ नाम से महिमामंडित हैं ।

(४) सृष्टि-रचना के समय भगवान् विष्णु ने माया की रचना की और उस माया के द्वारा सारे विश्व को मोहित किया। यह माया, भगवान् विष्णु की शक्ति हैं, जो वस्तुत: महामाया दुर्गा ही हैं । अत: ये ‘विष्णुमाया’ कही जाती हैं ।

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