वीरांगना रानी अवंतीबाई ने मृत्यु से पूर्व अंग्रेजों के नाम छोड़ा था पत्र, जिसे पढ़कर हैरान रह गई थी ब्रिटिश हुकूमत, पुण्यतिथि पर वीरांगना रानी अवंतीबाई को सब कर रहे नमन्
नई दिल्ली । भारत की धरा पर अनेक ऐसे वीर- वीरांगनाओं का जन्म हुआ जिन्होंने सन् 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम से लेकर संपूर्ण स्वाधीनता संघर्ष में अग्रणी भूमिका का निर्वहन किया, किंतु कुछ दरबारी इतिहासकारों की धूर्तता के कारण उनका अमूल्य योगदान आज भी काल के गर्भ में दफन होने को मजबूर है। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के उपलक्ष्य पर आज आपको अवगत कराते हैं एक ऐसी ही वीरांगना से जिन्होंने उस दौर में अंग्रेजों से लोहा लिया, जब महिलाएं राजनीति से अनभिज्ञ थीं। हम बात कर रहे हैं रानी अवंतीबाई की। इनका जन्म 16 अगस्त, 1831 को मध्य प्रदेश के सिवनी जिले के मनकेहणी ग्राम में हुआ था। इनके पिता राव जुझार सिंह 187 गांवों के जमींदार थे। अवंतीबाई की संपूर्ण शिक्षा घर पर ही हुई। घर पर ही उन्होंने तलवारबाजी का प्रशिक्षण भी प्राप्त किया। कम आयु में ही वह युद्ध कौशल में पूर्णरूपेण दक्ष हो गई थीं। अवंतीबाई का विवाह रामगढ़ के राजा लक्ष्मण सिंह लोधी के पुत्र विक्रमादित्य के साथ संपन्न हुआ। राजा लक्ष्मण सिंह ने रामगढ़ की रियासत तैंतीस साल तक संभाली। वर्ष 1850 में उनका देहावसान हो गया। इसके बाद रामगढ़ रियासत की बागडोर उनके पुत्र विक्रमादित्य ने संभाली, लेकिन विक्रमादित्य का मन राजकाज की अपेक्षा धार्मिक कार्यों में अधिक लगता था। यही कारण था कि राज्य के सारे निर्णय रानी अवंतीबाई ही करती थीं। विक्रमादित्य के पुत्र अमर सिंह एवं शेर सिंह अभी शैशवावस्था में ही थे कि राजा मानसिक रूप से विक्षिप्त हो गए। अब दोनों पुत्रों और रामगढ़ की संपूर्ण जिम्मेदारी रानी के कंधों पर आ गई। राजा के विक्षिप्त होने की खबर जैसे ही ब्रिटिश अधिकारियों को हुई, उन्होंने कोर्ट आफ वाड्र्स के तहत कार्यवाही करके राज्य का प्रशासन अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया और प्रतिनिधि के रूप में शेख मोहम्मद और मोहम्मद अब्दुल्ला को नियुक्त करके रामगढ़ भेज दिया। अंग्रेजों की राज्य हड़प नीति से रानी भलीभांति परिचित थीं। अतएव उन्होंने अंग्रेजों के दोनों प्रतिनिधियों को राज्य से बाहर खदेड़ दिया। कुछ समय पश्चात राजा विक्रमादित्य का स्वास्थ्य और खराब हो गया और उनका देहावसान हो गया। अब राज्य का सारा जिम्मा रानी के सिर आ गया था। वहीं दूसरी ओर अंग्रेजों की राज्य हड़प नीति के चलते सतारा, नागपुर और झांसी सहित कई रियासतों का विलय ब्रिटिश साम्राच्य में जबरन कर लिया गया। जब बात रामगढ़ की रियासत पर आयी तो रानी अवंतीबाई ने इस फरमान का पुरजोर विरोध किया। इस कुटिल नीति के विरुद्ध मंडला के गोंड राजा शंकर शाह की अध्यक्षता में आसपास के सभी राजाओं एवं जमीदारों का एक सम्मेलन बुलाकर एकजुट होने का संदेश दिया गया।इस विराट सम्मेलन के आयोजन हेतु रानी अवंतीबाई को प्रचार-प्रसार का दायित्व मिला। रानी ने अपने दायित्व का निर्वहन करते हुए पड़ोसी राज्यों के राजाओं एवं जमींदारों को पत्र के साथ कांच की चूडिय़ां भी भिजवाईं और पत्र में लिखा- देश की रक्षा के लिए या तो कमर कस लो या कांच की चूडिय़ां पहन कर बैठो, तुम्हें अपने धर्म-ईमान की सौगंध, जो इस कागज में लिखा पता बैरी को दिया। इस संदेश को जिसने भी पढ़ा वह देश के प्रति अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए तत्पर हो उठा। रानी के आवाहन की गूंज दूर-दूर तक गुंजायमान हुई और तय योजना के अनुसार आसपास के सभी राजा अंग्रेजों के विरुद्ध एकजुट हो गए। वर्ष 1857 का महासमर प्रारंभ हो चुका था। गोंड राजा शंकर शाह ने अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति का उद्घोष किया। वह अंग्रेजों की सेना से बहुत बहादुरी से लड़े, किंतु अंग्रेजों की विशाल सेना के चलते उन्हें हार का सामना करना पड़ा। 18 सितंबर, 1857 को अंग्रेजों ने राजा शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह को तोप में बांधकर आग लगा दी। इन दोनों वीर हुतात्माओं के बलिदान से अन्य राजाओं में आक्रोश की च्वाला और धधक उठी और वे सभी अंग्रेजों के खिलाफ उठ खड़े हुए। रानी अवंतीबाई के नेतृत्व में रामगढ़ के सेनापति ने भुआ बिछिया थाने पर धावा बोलकर उसे अपने अधिकार में ले लिया साथ ही घुघरी क्षेत्र पर भी अपना कब्जा कर लिया। विद्रोह की चिंगारी मंडला और रामगढ़ के संपूर्ण क्षेत्र में फैल गई जिसने अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर वाडिंग्टन की नींद उड़ा दी। मंडला के राजा शंकर शाह की वीरगति के पश्चात यहां की रक्षा का दायित्व भी रानी अवंतीबाई ने बखूबी निभाया। 23 नवंबर, 1857 को मंडला की सीमा में स्थित खैरी नामक गांव में रानी और अंग्रेजों के मध्य भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में डिप्टी कमिश्नर वाडिंग्टन बुरी तरह परास्त हुआ और उसे मंडला से भागना पड़ा। अब अंग्रेजों ने रानी अवंतीबाई से प्रतिशोध लेने के लिए रीवा के राजा की सहायता से अचानक रामगढ़ पर हमला कर दिया। अंग्रेजों की विशाल सेना का रानी अवंतीबाई ने साहस के साथ मुकाबला किया, किंतु तत्कालीन परिस्थितियों का आकलन करके वह किले से प्रस्थान कर देवहारगढ़ की पहाडिय़ों में जा पहुंचीं। 20 मार्च, 1858 को अंग्रेजों की विशाल सेना से रानी अवंतीबाई ने अपने कुछ सैनिकों के साथ साहस और वीरता के साथ युद्ध किया, लेकिन जब रानी को आभास हुआ कि उनकी मृत्यु निकट है तो उन्होंने रानी दुर्गावती का स्मरण करके अपनी ही तलवार से स्वयं के प्राण मातृभूमि के रक्षार्थ अर्पण कर दिए। कारण, उनका मानना था कि भारतीय स्त्री को जीते जी कोई शत्रु स्पर्श न कर सके। मृत्यु से पूर्व उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों के नाम एक पत्र छोड़ा, जिसमे लिखा था कि इस विद्रोह के लिए मैं जिम्मेदार हूं। मैंने ही सैनिकों को भड़काकर युद्ध के लिए प्रेरित किया। वे स्वयं विद्रोही नहीं बने। रानी के इस पत्र की मंशा यह थी कि उनकी मृत्यु के पश्चात अंग्रेज उनकी प्रजा को भयंकर यातनाएं न दें। धन्य है ऐसी वीरांगना जिसने राष्ट्रहित में अपने प्राणों की आहुति दे दी साथ ही राष्ट्र की मातृशक्तियों को यह संदेश दिया कि विपरीत परिस्थितियों में भी कैसे अपने आत्मबल को जागृत करके अपनी मातृभूमि की रक्षा की जा सकती है। मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले में बने बरगी डैम को रानी अवंतीबाई लोधी का नाम दिया गया है। 20 मार्च, 1988 को भारत सरकार ने रानी अवंतीबाई के नाम एक 60 पैसे का डाक टिकट भी जारी किया था।